Saturday, February 20, 2016

क़िस्त....

"बड़े बाबू नमस्कार।" ...... कोई जवाब नही। थूक निगल कर उसने फिर धीरे से कहा "देव....व..देवधर बाबू...... जी... नमस्कार"  देवधर बाबू कहने में वो पूरा काँप गया था। पर कोई जवाब नही। उसने थोड़ा और जोर से कांपती आवाज़ में कहा "प्रधान जी! नमस्कार..... " इस बार आराम कुर्सी पर बैठे देवधर ने उसकी तरफ उचटती सी नज़र डाली। कन्हैया ने खठ से दोनों हाथ जोड़ दिए। पर देवधर ने कोई प्रतिक्रिया नही दी। कमरे में एक बार फिर से सन्नाटा। कन्हैया हाथ जोड़े टकटकी लगाये देवधर के चहरे के भाव देखता रहा। पर उसे कोई उम्मीद की किरण नज़र नही आई। उसने फिर से अपने शरीर की पूरी ऊर्जा समेट कर कमर को थोड़ा और झुकाया ,सूखते होंठो को जीब से तर किया और गिड़गिड़ते हुए कहा "बड़े बाबू एक पखवाड़े से मजूरी नही मिली अगर........आज मिल जाये तो गरीब के चूल्हे का मुहं धुल जाये बड़ी मुश्किल चल रही है।"  कुछ वक़्त ऐसे ही गुज़र गया कोई जवाब नही। फिर देवधर ने कन्हैया को ऊपर से निचे तक देखा। पर जुबान को अब भी ज़हमत नही दी। कन्हैया अपने मटमैले चेहरे पर उधार की मुस्कान सजाये उम्मीद भरी नज़रो से उन्हें देखता रहा। उसे लगा शायद आज कुछ पैसे मिल जायेंगे।
"तुम्हे पता नही घर में शादी है।कितने काम अधूरे पड़े है और तुम्हे मज़दूरी की पड़ी है जाओ जाकर अपना काम करो कल मिल जाएंगी। देवधर ने रोबदार आवाज़ में हुडकी लगाते हुए कहा। कन्हैया लाचार नज़रो से उन्हें देखता रह गया। उसकी अब कुछ कहने की हिम्मत नही हुई।अपने झुके कंधो पर उम्मीद की लाश लेकर भारी कदमो के साथ दलान से बहार निकल गया।

कन्हैया ज्यादा पढ़ा लिखा नही था बस दो चार दर्ज़े ही पढ़ा था। उसका बाप गाँव के प्रधान के यहाँ काम करता था। उसकी मृत्यु के बाद कन्हैया वहां काम करने लगा था। मज़दूरी कभी हफ्ते भर में मिलती कभी पखवाड़े में मिल जाती। कुछ पक्का नही था। जब तक अकेला था कोई दिक्कत नही थी। पर जब से शादी की,परेशानी होने लगी,अकेला तो कैसे भी पेट भर लेता था। अब बीवी भी साथ में थी। अगला पिछला कुछ जोड़ कर नही रखा था। रोज़ का कमाना रोज़ का खाना था। कोई और आमदनी का साधन भी तो नही था। मजदूरी का ही सहारा था। इसीलिए परेशानी हो रही थी। वरना रघुराम भी तो उसी के साथ काम करता था। वो भी घर परिवार वाला था पर उसने दो भैंसे बांध रखी थी जिनका दूध बेचता था। राघुराम प्रधान के खेतों में मज़दूरी करता। उसकी जोरू कमला जंगल से घास लाती,गृहस्ती की गाडी मज़े में चल रही थी। घर में टीवी मोबेल सब थे। कन्हैया ने भी कई बार सोचा एक भैंस बांध ले पर पैसे कहाँ से लाये। खाने के ही लाले पड़े रहते है। पशुधन के लिए बैंक से क़र्ज़ मिलता था पर उसके लिए भी पहले बाबू लोग को राज़ी करो उन्हें भोग लगाओ तब जाकर कुछ काम बनता है। कई बार प्रधान जी से भी बोला था। बैंक में सिफारिश के लिए पर आजकल वें अपनी छोरी की शादी में व्यस्त है। किसी बात के लिए वक़्त ही कहा है उनके पास।

कन्हैया ने घर का दरवाज़ा खोला आँगन खाली था उसने चारो तरफ देखकर अपनी जोरू को आवाज़ दी "सुमरि........  अरी ओ..........  सुमरिया कहाँ हो जल्दी से बहार आ बड़ी तेज़ भूख लगी है।"  "क्या हुवा क्यों चिल्ला रहे हो" सुमरि ने जुभाई लेते हुए कहा।  " अरे पगली चिल्ला नही रहा तुझे पुकार रहा हूँ। कहाँ अंदर लेटी थी क्या? कन्हैया ने बड़े लाड से अंगड़ाई लेती सुमरि को देखते हुए पूछा।  " हाँ..आँख लग गई थी। चलो मुहं हाथ धो लो में खाना लाती हूँ।" उसने बिखरे बालो को बांधते हुए कहा।

" कुछ पैसे मिले ? सुमरि ने भात की कटोरी बढ़ाते हुए पूछा "
"नही..... कन्हैया ने थकी सी आवाज़ में सुमरि की तरफ देख कर जवाब दिया। "क्या बोले ? कुछ कहा तो होगा। कब देंगे ? "  सुमरि ने कन्हैया के चेहरे पर नज़र गड़ाते हुए पूछा। कन्हैया ने कोई जवाब नही दिया। चुपचाप दाल-भात खाता रहा। अपने मर्द को उदास और थकन से चूर देख सुमरि ने भी और कोई सवाल नही किया।चुपचाप झूठे बर्तन समेटे और आँगन में बिछावन लगाने लगी।

तारो से झिलमिलाते आसमान के नीचे कन्हैया और सुमरि एक चारपाई पर लेटे अपने अनमोल पलो को जी रहे थे। कन्हैया ने सुमरि का हाथ अपने हाथ में उलझा रखा था सुमरि भी होले-होले अपने हाथ से कन्हैया के सिर को प्यार से सहला रही थी।
"कन्हैया ऐसा कब तक चलेगा"
"कैसा...... ?"
"ऐसा ही जैसा चल रहा है "
जब तक तुम कहो सुमरि ...... मैं  तो सारी उम्र ऐसे ही तेरी बाँहो में पड़ा रहूँ। कन्हैया ने सुमरि की आँखों में झांकते हुए शरारत से कहा।
"मज़ाक नही....... मैं, हमारे हालात की बात कर रही हूँ। कब तक ऐसे ही गुजारा चलेगा ? किरयाने वाला भी उधारी देने में आना कानी करता है। ऊपर से अपनी गन्दी नज़र से ताड़ता है। सो अलग।" सुमरि ने चिंता भरी आवाज़ में कन्हैया की तरफ करवट बदल कर कहा। "प्रधान जी से बात की है मैंने अभी थोडा छोरी के ब्याह में उलझे है पर तू फिकर न कर कल मजूरी देने का बोला है सब की उधारी चूका देंगे।" कन्हैया ने सुमरि को अपनी बाँहो में खींचतें हुए कहा। चूड़ियों की खन-खन से आँगन गूंज उठा।  "मजूरी तो मिल जाएगी उसका क्या है। पर आगे की सोचो अभी तो हम दो है। कल परिवार भी बढ़ेगा ऐसे कैसे चलेगा।" सुमरि ने कन्हैया की छाती पर सिर रखे हुए कहा। "पगली... तू क्यों चिंता करती है मैं हूँ ना। मैने बैंक में बात की है क़र्ज़ के लिए बस प्रधान जी ब्याह से निपट ले फिर उनकी जमानत लेकर बैंक हमे क़र्ज़ दे देगा। एक भैंस ले लेंगे। मैं मजूरी करूंगा। तुम भैंस की टहल करना दूध बेचेंगे आमदनी बढ़ेगी तेरे लिए टीवी खरीदुंगा एक मोबेल लेंगे।" कन्हैया ने दूर आसमान में टिमटिमाते तारो को देखते हुए कहा " हा....  हा.......  हा....  हा... " सुमरि की खनकती हंसी से सुनसान वातावरण में घुँगरू से बज उठे। "क्यों हँस रही हो... मोहल्ला जगाओ गी क्या ?" कन्हैया ने खिलखिलाती सुमरि को टोकते हुए कहा। "शेखचिल्ली के सपने दिखाओंगे तो हंसी आयेगी ही।" सुमरि ने हंसी रोकते हुए कहा। "नही रे....... सच बोल रहा हूँ। सरकार पशुधन के लिए बैंक से क़र्ज़ देती है"
"ब्याज भी तो लेती होगी ?" सुमरि ने तुनककर कहा।
"नही ब्याज माफ़ है। बस एक साल बाद थोड़ा थोड़ा करके किस्तों में पैसा चुकाना पड़ता है। रघुराम ने भी तो ऐसे ही दो-दो भैंसे बांध रखी है खूंटे से है। प्रधान जी बता रहे थे ये योज़ना गरीबो के लिए ही है। "
"अच्छा........... !! सरकार अब गरीबो के लिए भी योज़ना बनाने लगी। "
सुमरि ने कन्हैया की बाँह में कचोटी भरते हुए शरारत से कहा। कन्हैया ने भी उसे अपनी बाँहो के घेरे में ले लिया। रात के अँधेरे में प्रेेम की लौ जलने लगी।

आज प्रधान देवधर बाबू की छोरी की शादी थी। पुरे गाँव में न्यौता दिया था। गाँव की औरते के साथ सुमरि भी सज़धज कर आई थी। उसकी सांवली सलौनी सूरत आज बहुत ही मोहक लग रही थी। शादी-ब्याह तो बहाना था उसने श्रृंगार तो अपने मर्द के लिए ही किया था। इसीलिए सुमरि की नज़र बार बार अपने कन्हैया को ढूंढ रही थी।

"सैंय्या मिले मोहे लरकय्या में का करूँ।
बारह बरस की में ब्याह के आई ,सैंय्या चलाये पैंय्या-२ में का करूँ।
जी का करूँ ........
पंद्रह बरस की में गौने पे आई सैंय्या उड़ाए कन्कय्या में का करूँ ।
सोलह बरस की मोरी बारी उमरयां सैंय्या छुडाएं बैय्यां में का करूँ।
जी का करूँ ........
बीस बरस की में होने को आई सैंय्या करे मैय्या -२ में का करूँ।
जी का करूँ ........"

ढोलक की थाप पर कुछ औरते गा रही थी और कुछ ठुमक रही थी कुछ ठिठोली कर रही थी । लम्बे-२ घुंगट निकाले औरते , सरपट इधर से उधर भागते नौकर चाकर ,इंतज़ाम में लगे लोग और भीनी भीनी पकवानो की उड़ती महक चारो तरफ उल्लास ही उल्लास था। जहाँ औरते बैठी थी उनके सामने ही मर्दो की टोली खड़ी थी सुमरि चोर नज़रो से बार बार उधर ही देख रही थी। कि कन्हैया शायद वहां ही हो। उसे कन्हैया तो नही दिखा पर दो लाल लाल आँखे जरूर नज़र आई जो उसे ही घूरे जा रही थी। पहले तो सुमरि थोड़ा सा सकपका गई। फिर उसने पास खड़ी जमना काकी से पूछा "ऐ....... काकी ये कोण है गेरू पगड़ी बाँध रखी है जिसने "   जमना काकी ने आँखे सिकोड़ कर उधर देखा जिधर सुमरि ने इशारा किया था। "अरे........ बिटिया इन्हे नही जानत हो ये ही तो प्रधान जी है। बाबू देवधर ! बड़े ही दयालु मानुष है।" काकी ने एक बात आगे की जोड़ कर परिचय दिया। "अच्छा ये ही है देवधर बाबू" इतना कहकर सुमरि वहां से हट गई और अपनी हमउम्र औरतो की टोली में व्यस्त हो गई।

कोई सास का रोना रो रही थी। कोई अपने मर्द की बाते बता रही थी ,किसी को अपनी नई साडी की खूबी बताने से ही फुरसत नही थी। सुमरि इन बातो से ऊब सी गई , तभी उसे मंडप के पास रघुराम की घरवाली कमला जाती नज़र आई। उसने उधर ही कदम बढ़ा दिए सोचा क्यों न बैंक से मिलने वाले क़र्ज़ के बारे में ही बात कर ले। कमला तेज़ तेज़ कदमो के साथ एक कमरे में गुस गई। सुमरि भी उधर ही बढ़ चली सोचा शायद कन्हैया भी उधर ही मिल जाये। उसने कमरे के पास जाकर कमला को इधर उधर देखा पर वो कही नज़र नही आई। कुछ मर्द मिठाई के टोकरे सरो पर रखे इधर ही आ रहे थे। इसलिए सुमरि थोड़ी सी दिवार से लग कर खड़ी हो गई। इस तरफ ज्यादा लोग नही थे। इक्का दुक्का ही औरत और बच्चे नज़र आ रहे थे। न कन्हैया दिखा और न कमला ही उसे कही नज़र नही आई। इसीलिए वहाँ से वापस मंडप की तरफ मूडने लगी। पर जैसे ही सुमरि आगे बढ़ी उसे किसी के रोने ही आवाज़ आई। उसने आस पास देखा कोई नही था। उसने कान लगाया आवाज़ शायद कमरे से आ रही थी सुमरि ने थोड़ा आगे जाकर एक खिड़की से अंदर झाँका। उसे कमला दिखी जो हाथ जोड़े खड़ी थी उसके सामने एक आदमी खड़ा था जिसकी बस पीठ ही नज़र आ रही थी। उसने सर पर गेरू पगड़ी बांध रखी थी। सुमरि को लगा शायद ये प्रधान देवधर है पर चेहरा नही दिख रहा था।
"प्रधान जी  बैंक वाले कल भी आये थे। बोल रहे थे। कि अगर इस हफ्ते में क़िस्त जमा नही की तो भैंस खोल कर ले जायेंगे। आप तो बोले थे कि आप ने सारी क़िस्त चूका दी " कमला सुबकते हुए कह रही थी। "तुम भी तो बोली थी कि जब कहोगे हाज़िर हो जाउंगी। कितना बुलावा भेजा तुम एक बार भी आई ?" सामने खड़ा आदमी ढिठाई से बोला। कमला की बातो से सुमरि को पता चल गया की ये प्रधान देवधर ही है।
"प्रधान जी हमसे अब ये गन्दा काम नही होता।" कमला ने ज़मीन में गर्दन गड़ाते हुए कहा। मानो उसे खुद से ही घिन आ रही हो।
"ठीक है तो फिर मेरे पास क्यों आई हो "
"आप बखत पे मजूरी दे देते तो हम नही आते। भैंस के दूध के पैसे घर में खर्च हो गए। आप मजूरी नही दे रहे। बैंक वाले धमकी दे कर गए है। कैसे क़िस्त जमा करे। अब और कहाँ जाये ? अगर आप के पास नही आये।" कमला आंसू पोंछते हुए गिड़गिड़ाई।
"सही है। क़िस्त नही चुकाओगे तो बैंक वाले तो आएंगे ही। क़िस्त चूका दो। " प्रधान की निष्ठुर आवाज़ सुनाई दी। "और उन किस्तों का क्या जो मैने कई बार काली रातो में आप की हवस से चुकाई  है। कमला ने थोड़े क्रोध से प्रधान का हाथ पकड़ते हुए कहा।"
"वो तो ब्याज था। मूल तो अभी बाकि है " प्रधान का ठहाका गूंजा।
"भगवान से डरो, कुछ तो तरस खाओ आज तुम्हारी छोरी का ब्याह है।" कमला ने प्रधान के पैर पकड़ते हुए कहा। "तो हम कोनसा आज ही तुमको बुला रहे है कल परसो जब बखत लगे आ जाना सारी किस्तें चुका देंगे।" एक बार फिर प्रधान का ठहाका गूंजा। सुमरि के पाँव ये सब सुनकर कांपने लगे। उसकी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा। उसे कभी कमला की सिसकी सुनाई देती तो कभी प्रधान का ठहाका ,कभी उसके कानो में कन्हैया की बीती रात की बाते गूंज़ती "ब्याज माफ़ है। बस एक साल बाद थोड़ा थोड़ा करके किस्तों में पैसा चुकाना पड़ता है।" तो कभी जमना काकी की बूढी आवाज़ "बाबू देवधर! बड़े ही दयालु मानुष है" उसे हतोड़े सी अपने सिर पर पड़ती महसूस होती।

"सुमरि...... आँखे खोलो सुमरि " उसे कन्हैया की आवाज़ सुनाई दे रही थी। आँखे खोली तो सामने परेशान सा कन्हैया खड़ा था। "क्या हुवा तुम्हे? बेहोश क्यों हो गई थी।" कन्हैया ने सुमरि के बगल में बैठते हुए बड़े प्रेम से पूछा। सुमरि कुछ नही बोली बस एकटक कन्हैया के चेहरे को देखती रही। "यहाँ मुझे कौन लाया है। "सुमरि ने कन्हैया की तरफ देखते हुए कमजोर सी आवाज़ में पूछा। "मैं लाया हूँ और कौन लाता। तुम अचानक बेहोश हो गई थी।" कन्हैया ने उसके हाथ को अपने हाथ में लेते हुए कहा। सुमरि को कमला और प्रधान की सारी बाते एकदम से याद आ गई उसकी आँखों से आँसू बह निकले। वो कन्हैया से छोटे बच्चो की तरह लिपट गई।
'कन्हैया हम बैंक से क़र्ज़ नही लेंगे। " सुमरि ने कन्हैया से रोते हुए कहा।
"नही लेंगे। जैसा तुम कहोगी वैसा ही करेंगे। तू रोती क्यों है पगली "  इतना कह के कन्हैया ने भी सुमरि को अपनी बाँहो में भर लिया।



Friday, February 19, 2016

फिर भी संतोष तो है............

"ये सूरज कल भी निकलेंगा ना ?" उसने डूबते सूरज को देखते हुए पूछा।
"उम्मीद तो है। "
"सही कहा उम्मीद ही तो है।" उसने आह ! भरी।
फ़ोन की घंटी हो या दरवाज़े की , आजकल सब एक उम्मीद ही तो है। कि दूसरी तरफ शायद वो बेटा हो जो माँ कहकर लिपट जाता था। बेटे के फोटो को बार बार चूमने,उंगलिया से छूने और आंसुओ से भिगोने में दर्द है। या आन्नद,ये तो एक माँ ही जानती है। हज़ारो मील दूर परदेश में व्यस्त, बेटा क्या जाने। बेटा तो बस वेस्टर्न यूनियन का एक कोड बन कर रह गया है जो हर महीने वक़्त से मिलता है।  ... आह... ! फिर भी संतोष तो है। कि इस बहाने वो हमे याद तो रखता है।


Thursday, February 4, 2016

निराशा में भी इबादत जैसा आनंद और सुकून है...................

कभी कभी गुज़री, खर्ची ज़िन्दगी का हिसाब लगाने को दिल करता है। जोड़ ,गुना, भाग सब करके हाथ में कुछ नही बचता। जुएं में हारे जुआंरी सा खाली और हताश अकेला दूर..........  अपने आप से भी तन्हा खड़ा नज़र आता हूँ । लगता है कि जैसे सारे दावं सारी बाज़ी ही बिना सोचे समझे खेल कर हारा हूँ। सब हार दिया सिवाए कुछ जन्म से ही चिपके रिश्तो और कुछ एक अच्छे कर्मों के एवज़ में मिले दोस्तो के।

किसी फ़िल्म की तरह सब आँखों के सामने चलता है। जो मैंने सुना है जिया नही ,जो जिया है वो सुना ही नही था। शायद इसीलिए कहते है। कि ऐसा कोई स्कूल नही जहाँ अनुभव सिखाया जाता है। अब तक जो जिया सब भरम था। परछाई थी। साथ तो चली और चलती रहेगी पर कभी हाथ नही आएगी। यहाँ से रुक कर देखता हूँ। तो अहसास होता है कि सब भाग रहे थे एक दौड़ थी जो आज तक ख़त्म नही हुई। पर मैंने शायद इसमें काफी देर से हिस्सा लिया। वो सब जिनको देख कर में हँसता था। ठहाके लगता था आज , इस दौड़ में रेफरी बने हुए है। और मैं भाग रहा हूँ बिना किसी मंज़िल के मुझे नही पता कहाँ रुकना है? कब तक दौड़ना है?

शीशे में खुद को ध्यान से देख कर लगता है। कि ये चेहरा मेरा नही है। पहचान ही नही पाता खुद को। पर खुद को जब मैं ही नही पहचानता तो ये सब लोग जो मेरे चारो तरफ बिखरे पड़े है। ये कैसे पहचान कर लेते है मेरी? हंसने का या सोचने का विषय है। पता नही । पहचानने वाले शायद इसीलिए गलतियाँ करते है। क्यूंकि इंसान दिखाई कुछ पड़ता है और अंदर कुछ होता है। बाहर से ऐसा सुन्दर और मासूम , मोहक मुस्कान सजा चेहरा और परदे के पीछे इतनी बेरहमी इतनी निष्ठुरता , निराशा और कुंठा कमाल है। यहाँ सबके चेहरों पर नकाब है कोई डॉक्टर है कोई अभिनेता है तो कोई नेता है। कोई अध्यापक , अभियंता तो कोई सुनार और मोची है। चोर पुलिस और भी कई सारे नकाबपोश है पर इंसान कहाँ है। पढ़ने के लिए अध्यापक के पास जाते है। दर्द होता है तो डॉक्टर को ढूँढ़ते है। पर उसकी तलाश कहाँ करे जिसे अशरफुल मखलूक़ात कहते है। उसका कोई पता ठोर ठिकाना है या वो अब किताबो और किस्सों कहानियो में ही है असल ज़िन्दगी में उसका कोई वज़ूद बाकि ही नही रहा।

"घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे!
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला। "(बशीर बद्र )

ऐसा नही है कि मैं हमेशा ऐसी नकारात्मक बाते ही करता हूँ या सोचता हूँ। परन्तु आजकल चारो तरफ नकारात्मक ऊर्जा इतनी है कि ना चाहते हुए भी दिल उदास हो ही जाता है। चाहे सुबह का अखबार हो या चौबीसो घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल और रिश्तो के नए-नए आयाम गढ़ते टीवी सीरियल। सब निराशा और षडयंत्रो से भरे पड़े है। परन्तु ये भी सत्य है कि निराशा में भी इबादत जैसा आनंद और सुकून है। शायद ये आप को अजीब लगे पर हम जब निराश और परेशान होते है तभी सबसे ज्यादा धार्मिक होते है।

खैर.... छोडो! इस मस्ताने बसंती मौसम में शायद ये बाते थोड़ी बेमानी है। क्यों न हम भी किसी बिछड़े मासूम लम्हे के विरह में डूब कर या किसी के प्रेम में मस्त होकर अपने मन को कटी पतंग सा आज़ाद छोड़ दे। ओर आनंद ले उल्लास ,प्रेम ,खुश्बू ,फूलों और रंगो से सजे इस रंगीन मदहोशी भरे मौसम का। छत पर खुले आसमान में रंगीन सपनो सी पतंगो के पेंच ललड़ाकर ताकि ये नीरस सी ज़िन्दगी बसंत सी मोहक,चंचल और प्रफुल्ल हो जाये।