Monday, January 25, 2016

आओ मिलकर "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा" बनाये.....

सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाये।
परन्तु आज जब हम 70वां स्वतंत्रता दिवस माना रहे है। तो दिल में कई सरे सवाल उठ रहे है की क्या सच में हम एक गणतंत्र राष्ट्र है ? जहाँ सब की भागीदारी और सब का कल्याण होता है। जहाँ जनता सर्वशक्तिमान होती है। जहाँ सविधान सभी को एक समान अधिकार देता है। जहाँ ऊँच-नीच ,जाति -धर्म का भेद भाव नही होता है। क्या सच में हम ऐसा गणतंत्र बना पाये है?

भले ही आज हमने तरक्की और प्रगति के नाम पर बड़ी-बड़ी इमारते, स्कूल,हॉस्पिटल शॉपिंग माल खड़े कर लिए हो। भले ही हम विश्व पटल पर परमाणु संपन्न देशो की कतार में खड़े हो। किन्तु परमाणु शक्ति संपन्न देश होना और भूख,शिक्षा,रोजगार,गरीबी से मुक्त देश होना दोनों अलग अलग बाते है। तरक्की करना और आगे बढ़ना किसी भी देश या समाज लिए बहुत जरूरी है। परन्तु ये तरक्की जमीनी हकीकत पर समाज के आखरी छोर पर खड़े नागरिक तक भी पहुंचनी चाहिए। ना की समाज के एक विशेष वर्ग और देश के चंद उद्योगपतियों की दहलीज पर पालतू बनकर दुम हिलाती रहे।

आज हमारे मुल्क में सब कुछ मंहगा है। सिवाए इंसान के, इंसान की कीमत हमारे देश में कुछ नही है। और जिस समाज और देश में इंसानो की कोई कीमत नही होती वहां इज़्ज़त सरे बाज़ार तबले की थाप पर नाचती  है। वहां हवस के पुजारी स्याह रातो में सफ़ेद जिस्मो का जीवन स्याह करते है। वहां जागती आँखों के ख्वाब  बिकते है वहां फूल से होठों की प्यास बिकती है। वहां बचपन चाय की दुकानो और होटलों पर दो वक़्त की रोटी के लिए झूठे बर्तन साफ़ करता है। वहां अफवाह पर इंसानो के क़त्ल कर दिया जाते है। पर किसी को कोई फर्क नही पड़ता। वहां हर दिन सैकड़ो दामिनी और निर्भया की इज़्ज़त सरे बाजार नोची जाती है और वो तड़प तड़प कर अपनी जान गवां देती। पर कोई कयामत नही आती। वहाँ ठिठुरती सर्दी और तपते सेहराओ में हजारो लाखो बेबस किसान,मजदूर जिंदगी की जंग हार जाते है। पर संसद भवन में मिनरल वाटर पी-पी कर बहस करने वाले,लाखो के सूट पहनने वाले देश के इन ठेकेदारो पर कोई फर्क नही पड़ता है। क्या ऐसे ही आजाद देश के सपनो को सच करने के लिए भगत सिंह और हज़ारो सपूत हँसते हँसते फांसी के फंदे पर झूल गए थे। क्या ऐसे ही देश के लिए हमारे अमर शहीदो ने अपना खून बहाया था के आने वाली नस्ले ऐसे ही सिसक-सिसक कर मरे। देश का किसान क्या इसीलिए अन्न उगाता है। की सरकारी गोदामो में सडे और लोग भूख से तड़प तड़प कर मर जाये।

ये कैसा समाज है ? कैसा देश है? कैसा गणतंत्र है ? ....... जहाँ हर कोई अपनी धुन में  मगन है सिर खुजाने की फुर्सत नही दायें -बाएं की खबर नही। सब भूखे है। कोई दौलत का भूखा तो कोई पेट का भूखा है,कोई  शोहरत का भूखा है तो किसी को कुर्सी की भूख है। भाईचारा,अमन,प्यार,मोहब्बत दम तोड़ती जा रही है। चारो तरफ मारो-मारो का शोर मचा है। इन्साफ के अड्डे सिसक रहे है पर कोई सुनने वाला नही है। क़र्ज़ में डूबा किसान और उत्पीड़न से पीड़ित छात्र खुदखुशी करने को मजबूर है। पर कोई सुनने को तैयार नही।

इन्साफ के लिए भटकते लोग जब मजबूर और मायूस होकर कहते है की "खुदा देख रहा है" तो सोचता हूँ। क्या देख रहा है ?

जब तक इन्साफ के लिए इंडिया गेट पर मोमबती जलती रहेगी ? जब तक मासूम बचपन सड़को पर अपनी भूख मिटाने  के लिए तिरंगे झंडे बेचते रहंगे। जबतक हिन्दू मुस्लिम के नाम पर लोग मरते रहंगे। जबतक नारी को भोग की वस्तु समझकर सड़को पर हवस के अंधे नोचते रहेंगे। जबतक दहेज़ के नाम पर घर की लक्ष्मी जलती रहेगी। जब तक जालिम समाज बेटी को माँ की कोख में कत्ल करता रहेगा।  जबतक ....जबतक ...... कैसा गणतंत्र,कैसा तंत्र कैसी आजादी।

इस भागम-भाग और अपने-अपने का राग अलापने वाले जालिम वक़्त ने इंसानियत और दिलो की मोहब्बत को इस तरह कुचल दिया है। कि ज़िन्दगी सजा बन गई है। किसका हाथ है जो खून से नही रंगा है ? किसका गिरेबान है जो गिरफ्त से बचा है।

इससे पहले की भूख और धार्मिक कटटरता इस मुल्क को खा जाये। इस से पहले की इन्साफ अमीरो के कदमो में दफ़न हो जाये। इस से पहले की आवाजे गुम हो जाये। आओ उस बूढ़े बाप का सहारा बने जिसके जवान बेटे ने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी,खुदा के लिए उस माँ के आसूँ पोछ डालिये जिसकी बेटी बेरहम समाज की हवस का शिकार हो गई। और उन मासूमो के सर पर अपनी मोहब्बतों का हाथ रख दीजिये जिनके बचपन सड़को पर भीख मांगते गुजर गए।

आओ आज लाल किले की दिवार से हम ऐलान करे। कि  चाहे कुछ भी हो जाये। हम अपने अंदर के इंसान को मरने नही देंगे। भाईचारे और एकता को कुछ चंद लोगो की नापाक जिद्द के आगे झुकने नही देंगे। आओ आज मिलकर "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा" बनाये। खुश रहिये ,इंसान रहिये। सभी को एक बार फिर स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाये।