Sunday, October 24, 2021

भेड़िये

उनके लिए तुम्हारी उम्र कोई मायने नही रखती तुम बूढ़ी हो जवान हो या फिर नादान बच्ची।

उम्र उनकी भी मायने नही रखती वो साठ के हो या सत्रह के।

कुछ मायने रखता है तो सिर्फ एक मौका, जो वो अक्सर ढूंढ ही लेते है, 

तुम भीड़ में हो, घर में हो या सड़क पर यह मायने नही रखता।
कुछ मायने रखता है तो सिर्फ तुम्हारा वहाँ होना जिसे वो ताड़ लेते है।

तुम चीखों, तडपो, गिड़गिड़ाओं या मदद मदद चिल्लाओ कोई मायने नही रखता।
कुछ मायने रखता है तो सिर्फ मुर्दा लाशों का वहाँ से गुजरना, जिसे वो जान लेते है।

कंक्रीट के इन जंगलों में वो भेड़िये आ बसे है, जो खुले आम घूमते है इंसानों की परवाह किये बिना, पर उनका इंसानों के बीच होना मायने नही रखता, मायने रखता है सिर्फ भेड़ियो के बीच इंसान का इंसान होना।

यह भीड़ जिनके हाथों में रोशनी की मसाले है, यह अख़बार जिनके पन्नो पर तुम्हारे दर्द की दस्ताने छपी है। यह लोग जो तुम्हें इंसाफ दिलाने के लिए लिख और बोल रहे है सब बे मायने, मायने रखता है तो सिर्फ इंसाफ, जो मुश्किल है।

Saturday, August 28, 2021

मेरे बचपन का स्वतंत्रता दिवस 🇮🇳🇮🇳


बचपन पैदल चलता है, हर कदम हर मौड़ पर गुजरती हर चीज़ को ध्यान से देखता है महसूस करता है और उसे खुलकर जीता भी है इसलिए शायद बचपन की यादें हमेशा दिमाग की तिजोरियों में महफूज़ रहती है। बात उन दिनों की है जब हर खुशी, त्यौहार केवल मोबाइल की सेल्फी या व्हाट्सएप- फ़ेकबुक के स्टेटस मात्र नही थे, तीज त्यौहार पर एक दूसरे को व्हाट्सएप पर मैसेज भेजकर नही बल्कि गले मिलकर मुबारकबाद दी जाती थी। उन दिनों में छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त की ख़ुशी ईद या दीपावली जैसे त्योहारों की खुशी से कम नही  होती थी।

सफ़ेद आर्ट के पन्ने पर बड़ी नफ़ासत से एक दिन पहले RG के रंगों से तिरंगा बनाकर साफ-सुतरी लकड़ी पर आटे की लई से बडे सलीके से चिपकाया जाता था, हफ़्तों पहले कागज पर बड़ी मेहनत से आज़ादी के नारे लिख-लिखकर याद किये जाते थे और स्कूल की छुट्टी से पहले जोर-जोर से बोलकर उनकी प्रेक्टिस भी की जाती थी।

फिर आती थी वो सुबह जिसके इंतेज़ार में रात भर नींद नही आती आई थी......
नीला कुर्ता सफेद पाजामा (जिसे नील देकर मज़ीद चमकाया होता था।) और उनके नीचे लखानी या बाटा की बुरुश से मनज़ी हुई हवाई चप्पल और हाथ मे तिरंगा झण्डा लेकर जब घर से निकलते थे तो आँखों की चमक और दिल की धड़कन खुद ब खुद बढ़ जाती थी। 

सुबह स्कूल की प्रभातफेरी में चिल्ला-2 पूरे गाँव में आज़ादी के नारे लगाते हुए घूमते थे, स्कूल में वापस आकर ध्वजारोहण होता था और सब एक सुर में जन-गण-मन गाते थे। जन-गण-मन उन दिनों सभी के मुँह जुबानी याद रहता था कुछ चंद एक किताबों के पिछले कवर पर वन्देमातरम भी छपा रहता था जिसे पढ़ने से उन दिनों ना तो ईमान से ख़ारिज होने का डर था ना ही पढ़ने से देशभक्ति का कोई प्रमाण पत्र अलग से मिलता था।

स्कूल में छोटे- मोटे प्रोग्राम भी होते थे जिनमें नज्म, कौमी तराने और एक आद हँसी-मज़ाक का प्रोग्राम होता था। इन सबके बाद स्कूल के हेडमास्टर या कोई अन्य मोअज्जि मेहमान देश की आज़ादी के बारे में छोटा सा भाषण देते थे।

आख़िर में गुलाबी लिफाफे में मुट्ठी भर गुलदाना मिलता था जिसे थोड़ा सा चखकर बाक़ी पेंट या कुर्ते की जेब मे रखकर घर ले जाते थे। ~कौशेन🇮🇳

अगर दरिया में रहना है बहाना सीख मौजों से,

ख़स-ओ-ख़ाशाक की मानिंद बह जाने से क्या होगा।

इसी एहसास से पैदा हुई है फ़िक्र-ए-आजादी,

क़फ़स में इस तरह घुट घुट के मर जाने से क्या होगा।।

ख़स-ओ-ख़ाशाक-घास, फूँस
कसफ़-पिजरा

गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त

 
मेरा एक दोस्त है फिलीपींस से, ऑफिस में साथ काम करता है। ऑफिस के साथ-2 वो अपना साइड बिज़नेस भी करता है जिसके पार्सल अक्सर ऑफिस के पते पर ही डिलीवर होते है। कभी-२ अगर ऑफिस टाइम के बाद कोई डिलीवरी होती है तो, वो मुझे फ़ोन कर के रिसीव करने के लिए बोल देता है क्योंकि मेरा घर ऑफिस से चंद क़दमों की दूरी पर ही है।

हमारे ऑफिस की जुमे और बार (शनिवार) की छुट्टी रहती है तो आज भी उसने मुझे शाम में कॉल करके बोला था कि मेरी डिलीवरी आयेगी प्लीज़ रिसीव कर लेना।

रात के 10;30 बजे मुझे डिलीवरी बॉय की कॉल आई।

हेल्लो- जी कौन मैंने (टूटी फूटी अरबी में पूछा) सामने से अरबी में जवाब आया कि आपकी डिलीवरी है। साथ ही उसने एक दो सेंटेंस और अरबी में बोले जो मुझे समझ नही आये। तो मैंने इंग्लिश में पूछा कि आप कहाँ से हो ( इजिप्ट, यमन, इंडिया या पाकिस्तान) उसे जवाब दिया कि मैं कश्मीर से हूँ  फिर हमनें हिंदी या समझ ले उर्दू में बात की, उसने कहा कि आप दो मिनट में बाहर आकर पार्सल रिसीव कर ले।
मैंने उसे अपने घर की लोकेशन भेजी क्योंकि उसके पास ऑफिस वाली लोकेशन थी और दरवाजे पर जाकर उसका इंतेज़ार करने लगा। लगभग मुश्किल से एक मिनट के बाद ही  उसने मेरे करीब आकर कार रोकी, पिछली सीट से एक बॉक्स उठाकर मुझे दिया और फोन नंबर कन्फर्म करके जाने लगा।
मैंने पानी की बोतल जो में उसके लिए लाया था उसे दी। 
उसने दो घूट पानी के पिये मेरा शुक्रिया अदा किया और फिर से जाने लगा।
मैंने उसे रोकते हुए कहा.. भाई अगर बुरा ना मानो तो एक बात पूछूँ?
जी बोलिये.. उसने कहाँ।
आपसे जब मैंने आपकी नशनल्टी के बारे में पूछा तो आपने कश्मीर बताया आप इंडिया या पाकिस्तान भी कह सकते थे?

"दोस्त ना तो इंडिया हमें अपना समझता है और ना ही पाकिस्तान, दोनों मुल्कों ने हमें सिर्फ जमीन का एक टुकड़ा समझा हुआ है हमें तो यह दोनों मुल्क इंसान ही नही समझते है, बस अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से हमारा इस्तेमाल करते है। इसलिए मैं सिर्फ कश्मीर का हूँ।"
  
कश्मीर के बारे में कहा जाता है कि “गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त/ हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त” (धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं).
#कौशेन