Monday, January 18, 2016

खुद की तलाश में. . . . . ..

आजकल मैं भटका- भटका सा फिरता हूँ। ऐसा लगता है। कि  मैं कहीं गुम हो गया हूँ। आप सब से गुजारिश है की मैं अगर कही नजर आऊं तो मुझे मेरे पते तक पहुंच दीजियेगा। वैसे मुझे अपना पता तो याद नही पर वहां की कुछ धुंदली सी यादे है उन्ही यादो की सैर कराता हूँ। मैं आपको, शायद आप ही मुझे ढूंड लें और पहुंच दे।

तो सबसे पहले चलते है दादी के चूल्हे के पास। मिटटी की हांड़ी में पकता सरसों का साग और झुर्री भरे हाथो से मक्की के आटे का घमंड तोड़ती दादी अपनी ही धुन में लगी रहती थी। कभी गोब्बर के उपलों को लोहे के चिमटे से अथल पथल करके आग को जलाती कभी लकड़ी की डोई को साग में चलाती ।
उनकी रसोई में  हमेशा अलग ही जायके बनते थे । उस खाने का स्वाद आज भी जीब में पानी ला देता है। सिल बट्टे की लड़ाई में जब लहसुन,पोदीना और लाल मिर्ची पिसती थी। तब जाकर चटनी बनती थी। लकड़ी की राई जब मिटटी के बड़े से पतीले में दूध को बेरहमी से हिचकोले देती तो मख्खन और मठ्ठा दोनों तड़पकर अलग हो जाते बेचारा मख्खन तो तैर कर अपनी जान बचाता था।
भौर में दादी जब चक्की से अनाज को पीसकर आटा बनाती तब हमारी सुबह होती, परियो के देश में जब कोई राजकुमार जालिम और दुष्ट राक्षस से परियो को छुड़ाता और दादी कहती के उसके बाद सब राजी ख़ुशी से परी लोक में रहने लगे तब जाकर हमारी रात होती।
कहाँ चले गए...........  वें लोग जो इतने सच्चे और अच्छे थे। बस देना ही जानते थे बिना किसी प्रतिफल के। कहाँ से लाते होंगे इतना प्यार ? सोचता हूँ तो फिर भटक जाता हूँ।

नीम के नीचे जब चरखे पर जीवन की तान छिड़ती और मोहल्ले की औरते एक धुन में गाती की........

"काले री बालम मेरे काले
काले री काले।
जेठ गए दिल्ली ससुर बम्बई।
काला गया री कलकता नगरिया
जेठ लाये लड्डू , ससुर लाये बर्फी ,
काला  लाया काली गाजरों  का हलुआ।
काले री काले बालम मेरे काले।"

कितना रस था उनके गीतों में। बेबाक हंसी के ठहाके जीवन अमर कर कर देते थे। आजकल उन्ही ठहाकों की तलाश में भटकता हूँ। शादी में हल्दी उबटन हो या विदाई सब के लिए अलग रस अलग मिज़ाज़ के  गीत थे। उनके पास , हर दुःख में हर सुख में उनके कंठ से कुछ न कुछ निकल ही जाता था।  जैसे नई बहु को अगर सास ताना देती या उसकी बुराई पड़ोसन से भी करती तो गाकर ऐसे कहती थी। कि........

"बहु मेरी भोली-भाली
लड़ना ना जाणै री
सास-नणद की चुटिया फाडे
आई - गई का लहंगा री
बहु मेरी भोली-भाली
लड़ना ना जाणै री "

और तारो भरी रात में जब एक हुक्के के इर्द गिर्द दिन भर के थके किसान मजदूर अपनी थकान को धुऐं में उड़ाते तो अजीब ही तरह का सकूँ मिलता था। खेतो में मठठे के साथ गुड खा कर जब भूख तृप्त हो जाया करती थी लहलहते खेेतो में जब हवा इठलाती थी। इन यादो में ही कही आज भी गुम हूँ मै।घंटो रोकर मिली चवन्नी लेकर चुस्की (आइसक्रीम ) वाले के पीछे रुको-रुको का शोर मचाते नंगे पैर दौड़ना। या ईद पर मिले नए कपड़ो को पहनकर इठलाना। खेल में दौड़ते हुए चप्पल का टूट जाना और डरते हुए घर जाना। बागो से कच्ची अम्बिया (कैरी ) चुराना, ऐसी ही कुछ मासूम और धुंदली यादो का बोझ लिए भटकता फिरता हूँ मैं । बाते और यादे और भी बहुत सी है। पर आंसू कमबख्त धुन्दला देते है सब। खैर अब जहाँ में रहता हूँ। वहां  ऊँची ऊँची बिल्डिंग और ऊँचे-ऊँचे लोग मुझे अजीब लगते है। ये खचा खच भरी सड़के मुझे वीरान लगती है। ये मॉल और बड़े-बड़े कारखाने मुझे उन तमाम किसान  और मजदूरो की कब्रे नज़र आते है जो कभी यहाँ बैलो के गले की घंटियों पर झूमते और अपने पसीने से धरती की प्यास बुझाते थे । ऐसे में खुद को कहाँ तलाश करूँ ? मेरी मदद कीजिये।   कृपया ऐसा कुछ अगर आपको कही मिले या नज़र आये तो बराए मेहरबानी इतल्ला जरूर करे। और अगर मदद नही कर सकते तो इतना सुझाव जरूर दीजिये। कि क्या मैं निकल चालू यहाँ से अपनी तलाश के सफर में मुसाफिर बनकर ?