Thursday, February 4, 2016

निराशा में भी इबादत जैसा आनंद और सुकून है...................

कभी कभी गुज़री, खर्ची ज़िन्दगी का हिसाब लगाने को दिल करता है। जोड़ ,गुना, भाग सब करके हाथ में कुछ नही बचता। जुएं में हारे जुआंरी सा खाली और हताश अकेला दूर..........  अपने आप से भी तन्हा खड़ा नज़र आता हूँ । लगता है कि जैसे सारे दावं सारी बाज़ी ही बिना सोचे समझे खेल कर हारा हूँ। सब हार दिया सिवाए कुछ जन्म से ही चिपके रिश्तो और कुछ एक अच्छे कर्मों के एवज़ में मिले दोस्तो के।

किसी फ़िल्म की तरह सब आँखों के सामने चलता है। जो मैंने सुना है जिया नही ,जो जिया है वो सुना ही नही था। शायद इसीलिए कहते है। कि ऐसा कोई स्कूल नही जहाँ अनुभव सिखाया जाता है। अब तक जो जिया सब भरम था। परछाई थी। साथ तो चली और चलती रहेगी पर कभी हाथ नही आएगी। यहाँ से रुक कर देखता हूँ। तो अहसास होता है कि सब भाग रहे थे एक दौड़ थी जो आज तक ख़त्म नही हुई। पर मैंने शायद इसमें काफी देर से हिस्सा लिया। वो सब जिनको देख कर में हँसता था। ठहाके लगता था आज , इस दौड़ में रेफरी बने हुए है। और मैं भाग रहा हूँ बिना किसी मंज़िल के मुझे नही पता कहाँ रुकना है? कब तक दौड़ना है?

शीशे में खुद को ध्यान से देख कर लगता है। कि ये चेहरा मेरा नही है। पहचान ही नही पाता खुद को। पर खुद को जब मैं ही नही पहचानता तो ये सब लोग जो मेरे चारो तरफ बिखरे पड़े है। ये कैसे पहचान कर लेते है मेरी? हंसने का या सोचने का विषय है। पता नही । पहचानने वाले शायद इसीलिए गलतियाँ करते है। क्यूंकि इंसान दिखाई कुछ पड़ता है और अंदर कुछ होता है। बाहर से ऐसा सुन्दर और मासूम , मोहक मुस्कान सजा चेहरा और परदे के पीछे इतनी बेरहमी इतनी निष्ठुरता , निराशा और कुंठा कमाल है। यहाँ सबके चेहरों पर नकाब है कोई डॉक्टर है कोई अभिनेता है तो कोई नेता है। कोई अध्यापक , अभियंता तो कोई सुनार और मोची है। चोर पुलिस और भी कई सारे नकाबपोश है पर इंसान कहाँ है। पढ़ने के लिए अध्यापक के पास जाते है। दर्द होता है तो डॉक्टर को ढूँढ़ते है। पर उसकी तलाश कहाँ करे जिसे अशरफुल मखलूक़ात कहते है। उसका कोई पता ठोर ठिकाना है या वो अब किताबो और किस्सों कहानियो में ही है असल ज़िन्दगी में उसका कोई वज़ूद बाकि ही नही रहा।

"घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे!
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला। "(बशीर बद्र )

ऐसा नही है कि मैं हमेशा ऐसी नकारात्मक बाते ही करता हूँ या सोचता हूँ। परन्तु आजकल चारो तरफ नकारात्मक ऊर्जा इतनी है कि ना चाहते हुए भी दिल उदास हो ही जाता है। चाहे सुबह का अखबार हो या चौबीसो घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल और रिश्तो के नए-नए आयाम गढ़ते टीवी सीरियल। सब निराशा और षडयंत्रो से भरे पड़े है। परन्तु ये भी सत्य है कि निराशा में भी इबादत जैसा आनंद और सुकून है। शायद ये आप को अजीब लगे पर हम जब निराश और परेशान होते है तभी सबसे ज्यादा धार्मिक होते है।

खैर.... छोडो! इस मस्ताने बसंती मौसम में शायद ये बाते थोड़ी बेमानी है। क्यों न हम भी किसी बिछड़े मासूम लम्हे के विरह में डूब कर या किसी के प्रेम में मस्त होकर अपने मन को कटी पतंग सा आज़ाद छोड़ दे। ओर आनंद ले उल्लास ,प्रेम ,खुश्बू ,फूलों और रंगो से सजे इस रंगीन मदहोशी भरे मौसम का। छत पर खुले आसमान में रंगीन सपनो सी पतंगो के पेंच ललड़ाकर ताकि ये नीरस सी ज़िन्दगी बसंत सी मोहक,चंचल और प्रफुल्ल हो जाये।