रास्ते है,पर ना रहबर है ना कोई मंज़िल है।
बस एक कारवाँ है। जो अंधेरो के हमराह है।
उजाले सारे पीछे छूट गएँ हैं।
सत्य, अहिंसा और इंसानियत सब से एक एक करके नाते टूट गएँ है।
अब बाकि बस एक मंच है,उस पर भीड़ है। और सामने झूठ का परदा है।
हर चेहरा पर सच का नकाब है। और नकाब पर थोड़ी-थोड़ी गर्दा है।
शहरो में सन्नाटा और खेत-खलिहानों में मौत मंडराती है।
पीड़ा में आनन्द आने लगा। खुशियाँ इस महंगाई में खूब रुलाती है।
हाँ पर पैसे, कुर्सी और पुरस्कार आजकल खूब इतराते है।
इनकी खातिर ज़िंदा मुर्दे और मुर्दा ज़िन्दे हो जाते हैं।
पर ये दुखड़ा किसे सुनाये ,किसे देश की हालत बताएं।
प्रधान सेवक सब अपनी धुन में मस्त है, जनता भाड में जाये।
राष्ट्वादी सब फेसबुक पर और देशभक्त सब ट्वीटर पर है। बाकि टीवी पर आते है।
कोई बचा ही नही। तो फिर सोचो ..... !
मारो-मारो सड़को पर ये कौन चिल्लाते है ?