Friday, February 19, 2016

फिर भी संतोष तो है............

"ये सूरज कल भी निकलेंगा ना ?" उसने डूबते सूरज को देखते हुए पूछा।
"उम्मीद तो है। "
"सही कहा उम्मीद ही तो है।" उसने आह ! भरी।
फ़ोन की घंटी हो या दरवाज़े की , आजकल सब एक उम्मीद ही तो है। कि दूसरी तरफ शायद वो बेटा हो जो माँ कहकर लिपट जाता था। बेटे के फोटो को बार बार चूमने,उंगलिया से छूने और आंसुओ से भिगोने में दर्द है। या आन्नद,ये तो एक माँ ही जानती है। हज़ारो मील दूर परदेश में व्यस्त, बेटा क्या जाने। बेटा तो बस वेस्टर्न यूनियन का एक कोड बन कर रह गया है जो हर महीने वक़्त से मिलता है।  ... आह... ! फिर भी संतोष तो है। कि इस बहाने वो हमे याद तो रखता है।