Tuesday, August 22, 2017

"अगर तुम मर ही जाते तो कम से कम ये शुकून तो रहता कि कोई करने वाला नही भीख ही मांग लेते । पर तेरे होते हुए तो कोई भीख भी नही देता। कहते है कि इसका तो हट्टा कट्टा शौहर जिन्दा है। इन बच्चो को संभालूँ , लोगो के घरो में बर्तन मांजू  ? या जिन से उधार लिया है उनकी की गालियाँ और गन्दी नज़र बर्दास्त करूँ।" हमेशा की तरह वो रो पीट रही थी। और उसका शौहर आराम से बीड़ी फूंक रहा था। उस पर बीवी की बातो का कोई असर ही नही हो रहा था। या शायद अब उसे ऐसे ताने सुनने की आदत थी। "अरे. . . . . . . जब बेटा........ इतना........ निकम्मा, नकारा था तो इसकी शादी क्यों की. . . . . . . . क्या शौंक चढ़ा था ऐसे निठल्ले के सर पर सेहरा सजाने का।" राशिद पर अपनी बातो का असर होता न देख अब रुखसाना ने दांत भींच -२ कर सास की तरफ गोले दागने शुरू कर दिए। पर उसकी सास ताहिरा बेगम एक नेक और समझदार खातून थी हमेशा की तरह शर्म से गर्दन झुका कर चुप रही। ( जो की सास बहू के मसले में एक अजीब बात है। )

पूरा घर राशिद के निकम्मेपन और आवारागर्दी से परेशान था। बूढ़ा बाप दिन रात बिजली के कारखाने में काम करता और जवान बेटा सड़को पर आवारागर्दी। छोटा परिवार था।  इसलिए दो वक़्त की रोटी नसीब हो रही थी, वरना ऐसे महंगाई के जमाने में कहाँ गुजारा होता है। दो बहन-भाई और माँ-बाप बस चार लोग थे परिवार में। जमील मियां ने काफी कोशिश की बेटा कुछ पढ़ लिख जाये। पर अकेला होने की वज़ह से घर पर मिले ज्यादा लाड प्यार और उसकी आवारा सोहबत ने उसे कहीं का नही छोड़ा। घर से स्कूल का कहकर निकलता और सारा दिन आवारा दोस्तों के साथ मटरगस्ती करता, यहाँ-वहाँ घूमता। बाप सारा दिन ड्यूटी पर रहता डर किसी का था नही, इसीलिए दिन पर दिन बिगड़ता चला गया। गली मोहल्ले से रोज़ शिकायते आने लगी कभी किसी के साथ मारपीट और कभी किसी के साथ गाली गलोच। रोज़ रोज़ की शिकायतों से तंग आकर जब बाप ने डांट पिलाई कि "राशिद देख या तो ये आवारागर्दी छोड़ दे वरना कहीं का नही छोड़ेगी ये तुझे। पढाई पर ध्यान लगा " तो तिडक कर बोला।  "मुझे...... नही पढ़ना  है। मुझे पढाई समझ नही आती... । मुझे काम...  करना है "
"बेटा पढ़ लिख जायेगा तो तेरे ही काम आएगा। और आजकल तो हर काम में पढाई की जरूरत पड़ती है "
माँ ने भी प्यार से समझाया। पर पत्थर दिमाग पर जोंक न लगी। थक हार कर जुम्मन चाचा की फर्नीचर की दुकान पर ये सोच कर छोड़ दिया के पढ़ा नही है। कम से कम हाथ का दस्तकार ही हो जायेगा तो जिंदगी में भूखा नही मरेगा।

पर आवारा तबियत राशिद यहाँ भी नही टिक सका। दो तीन महीने काम करके जुम्मन चाचा को भी टाटा बाय-बाय कर दिया। बूढ़े बाप ने जैसे तैसे करके बेटी के तो हाथ पीले कर दिए। पर नालायक बेटे को लाइन पर न ला सके। आस-पडोस, यार-रिश्तेदार सब ने ये ही सलाह दी। कि  शादी कर दो खूंटे से बंधेगा तो खुद-बर-खुद लाइन पर आ जायेगा। बूढ़े कंधो ने सोचा, ठीक है शादी तो करनी ही है। हो सकता है के दुल्हन का मुंह देख कर ही कुछ अक्ल आ जाये। और इस तरह रुखसाना दुल्हन बनकर इस आवारा के पल्ले बंध गयी।

नयी दुल्हन घर में आई तो खर्चे भी बढ़ गए। कुछ दिनों तक तो सब ठीक चला । पर बूढी कमाई,जवान बहू के खर्चे कहाँ तक बर्दास्त करती। बहू के ताने सास के कानो तक जाने लगे। घर के बिगड़ते हालात को देखकर माँ ने बेटे को खूब समझाया  "देख अब कुछ काम धंधा शुरू कर दे। मजदूरी ही करने लग,बहू भी आ गई है कब तक तेरे अब्बू अकेले पूरे घर का खर्च उठाते रहेंगे। अब बहुत हुआ संभल जा बेटा ।"  पता नही माँ की नसीहत का असर था या बीवी के खर्चो का ,अक्ल में कुछ बात आई और मजदूरी करने लगा। पर वो कहावत है ना कि चोर चोरी छोड़ देता है पर हेरा-फेरी नही छोड़ता। राशिद पर एक दम सही बैठती है। अब काम तो करता पर अगर दो दिन काम करता तो तीन दिन पड़कर खाता। ऊपर से हर साल बढ़ते परिवार से हालात और ख़राब हो गए। बहू हर वक़त सास को ताने देती। पर ताहिरा बेगम अपनी किस्मत समझ कर चुप रहती। वैसे भी माँ बाप जन्म के साथी होते है कर्म के नही। समझा-समझा कर थक गए। पर राशिद पर कोई फर्क नही पड़ता।

जब तक बाप का साया सर पर था। घर की गाडी किसी तरह चलती रही, पर उनके इंतकाल के बाद हालात बद से बत्तर होते गए। कभी कभी तो फाको की नौबत आजाती। रोज़ रोज़ के झगडे बढ़ने लगे। रुखसाना सास को कोसती, मायके जाने की धमकी देती। इधर बेटा अपने निकम्मेपन से बाज नही आता और इन दोनों के बीच में बूढी ताहिरा बेगम घुन की तरह पिस रही थी। ऊपर से भूखे पोता-पोती, अपनी भूख तो कैसे भी दबा लेती। पर दादी पर छोटे छोटे बच्चो का तड़पना नही देखा जाता। सच ही कहा किसी ने कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा हो जाता है। इसीलिए ताहिरा बेगम ने बच्चो की भूख मिटाने के लिए आस-पड़ोस से काफी क़र्ज़ ले लिया था। जो वक़्त पर चुका न सकी और कर्ज़े वाले अब रोज़ आकर खरी खोटी सुना देते। बूढी आँखे शर्म से गर्दन झुकाकर उनसे ना जाने किस उम्मीद पर कल परसो के वादे कर लेती। और हर बार वादा खिलाफी पर नयी ज़लालत और नए वादे । पर नालायक बेटे पर कोई फ़र्क़ नही पड़ा।

और फिर अचानक सब कुछ बदल गया। घर के आँगन में हमेशा ठंडा पड़ा रहने वाला चूल्हा आग से दहकने लगा। पहले हर वक्त भूख से रोने बिलखने वाले बच्चे अब अपनी मस्ती में खेलने लगे। रुखसाना के चीखने चिल्लाने की जगह अब निकम्मे और नकारा राशिद की गन्दी गन्दी गालियों की आवाज आने लगी। "तू...बदचलन है, तू ... बाज़ारू औरत है रुखसाना ..." और रुखसाना आराम से घर के कामो में लगी रहती। उस पर शौहर की बातो का कोई असर नही होता। या शायद अब उसे ऐसे ताने सुनने की आदत थी। कर्ज़े वालो की गन्दी गालियाँ भी अब मुस्कुराहटों में बदल गई थी। बस एक चीज़ अब भी नही बदली थी। और वो थी बूढी ताहिरा बेगम की शर्म से झुकी गर्दन ।