Monday, July 4, 2022

क्या अहल ऐ जहाँ तुझको सितमगर नही कहते....


किसी भी तरह की बर्बरता, हैवानियत और हत्या को, किसी भी तरह सही नही ठहराया जा सकता है। आप चाहे इंसानियत,सियासत,धर्म या फिर किसी भी एंगल से सोचे, नंगी आंखों से देखे या धर्म-अधर्म की ऐनक लगाकर अगर आप जिंदा इंसान है, एक सभ्य समाज का हिस्सा है तो आपको निर्ममता भरा जघन्य अपराध साफ नजर आयेगा और आना भी चाहिए।
हर ज़ुल्म एक जुर्म होता है और हर तरह के जुर्म की अलग सजा है। जिसके लिए हमारे देश में कानून है कोर्ट है।

किसी भी लोकतांत्रिक देश में सबसे बड़ी आजादी अन्याय के खिलाफ़ बोलने की होती है। ज़ुल्म के खिलाफ़ उठ खड़े होने की होती है पर कानून हाथ में लेने या ख़ुद जज बनकर सजा सुनना या देना जघन्य अपराध है। मौजूदा परिस्थिति में लोकतंत्र एक भीड़ तंत्र बन गया है जहां कभी भी कोई भीड़ आकर किसी को भी धर्म और आस्था के नाम पर घेर कर मार देती है। जो सरसर गलत और निंदनीय है। परंतु इन सब में कहीं ना कहीं लचर प्रशासन और रेंगती न्यायपालिका भी जिम्मेदार है। दोहरे मापदंड, हर खिलाफ़ उठने वाली आवाज को कानून और पुलिस का डर दिखाकर चुप कराना या जेल में डाल देने से देश में जो हताशा, लाचारी और घुटन का माहौल जन्म ले रहा है इससे किसी का भला नही होगा। किसी खास धर्म या समुदाय को निशाना बनाने उनके घरों पर बुल्डोजर चलाने से देश का नाम रौशन नही होगा। दमनकारी नीति केवल सत्ता और उसके चाटुकारो का कुछ दिन ही भला करती है। परंतु उस कुछ वक्त में मानवता और नैतिकता का जो नुकसान होता है उसके परिणाम नस्ल दर नस्ल भुगतने पड़ते है।

आजकल देश का माहौल किसी फिल्म की रोचक पटकथा सा प्रतीत होता है। जिसमें एक फ्रेम की रोचकता जैसे ही कम होने लगती है तुरंत ही एक नया मोड़ कहानी में उभर आता है।
हर रोज एक नया क़िरदार कहानी में जुड़ जाता है। कभी कोई नफरती चिंटू धर्म के नाम पर पिटारा खोल लेता है तो कभी कोई देश भक्ति को ढाल बनाकर अपना उल्लू सीधा कर जाता है। किसी की एक छोटी सी बात भी उसके लिए जिंदगी भर की सजा बना दी जाती है तो किसी का जघन्य अपराध उसके लिए अवसरता के नए राजनीतिक द्वार खोल देता है।

रोज टीवी चैनलों की मज़हब के नाम पर जोश भरी बहस देखकर लगता ही नही की देश में अर्थव्यवस्था, शिक्षा, रोज़गार, सामाजिक और आर्थिक विकास कोई मुद्दा भी है। अपने कथित आकाओं और उनकी गलत नीतियों, प्रोपेगंडा तथा पंगु और छोटी सोच को सही ठहराने की जी तोड़ मेहनत करते टीवी चैनल और उन पर लिपे पुते मुर्दा ज़मीर के जो कसाई अंकर रोज हम-तक ज़हरीली खबरें पहुंचते है। उन्हें फर्क ही नही पड़ता की इसका समाज की मानसिकता पर या फर्क पड़ेगा। किसी विश्व शक्ति के सरबराह द्वारा नैतिक आधार पर हाल चाल पूछना पहले पन्ने की ख़बर बनाकर फैलाई जाती है। भले ही उसी पल आपके देश में कोई धर्म के नाम पर कत्ल किया जा रहा हो या कोई नौजवान नौकरी ना मिलने की हताशा में खुदकुशी कर रहा हो कोई मायने नही रखता है।
विदेशों में देश के नाम का डंका बजना अच्छी और गर्व की बात है पर अपने देश में जो अल्पसंख्यक,दलित, आदिवासी कमज़ोर वर्ग के साथ अन्याय और जुल्म हो रहा है उसपर आँख मूंद लेना भी शर्मिंदगी की बात है। ऐसे मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू-थू करने से विश्वगुरु नही बना जाता है।
बाकी मज़हबज़-धर्म और आस्था के नाम पर होने वाली बर्बरता और हैवानियत भरी घटना दोबारा ना हो इसके लिए सोचे , इस तरह की घटनाओं से सामान्य नागरिक पिसते हैं, शर्मिन्दा होते हैं कि क्या कहें, क्या करें। गली-मौहल्लों कालोनियों ,बाजारों, बसों, ट्रेनों और स्कूलों में मासूमों को भुगतना पड़ता है। ये ना कोई धर्म है, ना मज़हब है और ना ही आस्था, ये केवल निरिह जिहालत है पागलपन है। ऐसे पागलों से दूरी बनाकर रहे। अपने हक और मुद्दों की लडाई लड़े। कथित धर्म और राजनीतिक ठेकेदारो के प्यादे बनकर आपका भला नही होगा। आखिर में बिस्मिल सईदी की यह पंक्तियाँ मुखिया के नाम.......
"क्या अहल-ऐ-जहाँ तुझको सितमगर नही कहते,
कहते तो है पर तेरे मुँह पर नही कहते।"
~कौसेन

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