दुःख और ख़ुशी
सब कहते है खुश रहा करो, अपने मन मस्तिष्क को सकारात्मक विचारों से भरो।
करो ख़ुद ही मंथन दुःख का खुशी का, जो इनसे पार पा गया अमर हो गया जीवन उसी का है।
किया मैंने गहन आत्ममंथन, सोचा जीवन में दुःख और ख़ुशी का क्या है बन्धन?
पहला प्रश्न जो मैंने खुद से किया, ख़ुशी है क्या?
सकुचाये से मन ने यह लंबा सा उत्तर दिया।
खुशी है दुःखों की दवा या गम की आँधी में कहीं से आया
रंगीन दुपट्टा जो किसी की उतरन है।
या वो किलकारी जो नौ महीने बाद माँ के
कानों में पड़ती है और क्षण भर में 'लड़की
है' जैसे शब्दों में फिर से दफ़न हो जाती है।
या वो प्रेम जो अपनी सीमाओं को लांघ कर
अस्पताल के पीछे नाले में बह जाता है।
या वो सम्मान जो ताबूतों में बंद कर दिया जाता है,
जात-पात के ताले लगाकर।
या वो चमक जो पिचके हुए जर्जर शरीर के सहारे, बेजान आँखों से,
टकटकी लगायें शीशे की दीवार के उस पार रखी रोटी को तकते हुए आंखों में आ जाती है।
या दुल्हन के जोड़े में सजी बेटी की झोली में भरे अरमान,
या उसी दुल्हन को दहेज के लोभ में आग लगाने वालों की
लालच भरी सोच जिसमें भरा है निर्दोष सिद्ध होने का सन्तोष।
इससे आगे मेरा मन उखड़ गया गुस्से से बोला, इसके अलावा कोई और प्रश्न हो तो बोलो, मुझकों ख़ुद के विचारों की तराजू में मत तोलो।
अच्छा दुःख क्या है? बस इतना और बता दो,
तुम ज्ञानी हो तो बिना रुके इसका भी उत्तर दो?
मन ने मुझकों अजीब सी नज़रो से देखा,
नादान!
दुःख और खुशी के बीच है बस एक महीन रेखा।
और बोला दुःख है...
वृद्धाश्रम में लेटी हुई उस माँ की प्रसव पीड़ा जिसकी साँसों की डोर अटकी है किसी अपने के आने की झूठी आस में ।
या सड़कों पर इंसानी भेड़ियों के पंजों में तड़पती किसी निर्भया की चीख,
या मारो-मारो के शोर के साथ अपने हाथों से इंसाफ करती कथित भीड़,
या अन्नदाता का अन्न के लिए तडपकर मर जाना।
या सत्ता के घमंड में जनता की त्राहि-त्राहि पर ठहाके लगाना।
या सीमा पर राष्ट्र की रक्षा करते-करते ठंड से सिकुड जाना।
या इंजीनियर की डिग्री लेकर चपरासी की जॉब के लिए लाइन में लग जाना।
और भी कई रंग है दुःख और खुशी के इस दुनिया में, पर बहुत मुश्किल है सब को एक साथ कह पाना।
इतना कहकर मन मौन हो गया, मेरे विचारों में जैसे कहीं वो खो गया।
और मैं आज भी अटका हूँ उस महीन सी रेखा के सहारे,
जिसे लांघकर जीवन, दुखों को खुशी के पार उतारे।
No comments:
Post a Comment